भारत जैसे विविधता भरे देश में धर्म सिर्फ एक व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं, बल्कि लोगों की संस्कृति, जीवनशैली और सोच का केंद्र भी है। वहीं राजनीति देश के संचालन का माध्यम है, जो समानता और निष्पक्षता की बात करती है। लेकिन जब यही दोनों रास्ते एक-दूसरे से टकराने लगते हैं—या मिल जाने लगते हैं—तो सवाल उठता है: क्या धर्म और राजनीति का मेल लोकतंत्र को मजबूत करता है या कमजोर?
हाल के वर्षों में कई राजनीतिक दलों ने धार्मिक मुद्दों को अपनी रणनीति का अहम हिस्सा बना लिया है। कुछ लोग इसे भारत की आत्मा से जुड़ा मानते हैं, तो कुछ इसे वोटबैंक की राजनीति करार देते हैं। इसी बहस के बीच हमने आम लोगों से यह जानने की कोशिश की कि वे इस मेल को कैसे देखते हैं—क्या यह एक नैतिक ज़रूरत है या लोकतांत्रिक खतरा?
उद्यांश पाण्डेय (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त )

धर्म और राजनीति एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि पूरक हैं। भारतीय परंपरा में “राजधर्म” या “राष्ट्रधर्म” की अवधारणा सदियों से चली आ रही है, जो दर्शाती है कि राजा या शासक का कर्तव्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि प्रजा की सेवा करना, न्याय स्थापित करना और धर्म के मार्ग पर चलना है। रामराज्य इसी आदर्श का प्रतीक है, जहां शासन नीति और धर्म का पूर्ण संतुलन था। धर्म का तात्पर्य केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि समाज की नैतिक व्यवस्था, कर्तव्यों की पहचान और सत्य के मार्ग पर चलने से है। राजनीति जब इन सिद्धांतों को अपनाती है, तभी वह लोकहित में परिवर्तित होती है। राजनीति से धर्म को अलग करना ऐसा है जैसे शरीर से आत्मा को अलग करना,राजनीति धर्म की अधिष्ठात्री शक्ति होनी चाहिए, तभी राष्ट्र का सम्यक् विकास संभव है।
वंश घुरियानी ( मीडिया विद्यार्थी)

मेरे हिसाब से राजनीति में धर्म को नहीं जोड़ना चाहिए। धर्म और राजनीति दोनों की अपनी-अपनी अहम भूमिका होती है। धर्म इंसान की आस्था और मूल्यों से जुड़ा होता है, जबकि राजनीति का काम देश को सही तरीके से चलाना और सभी की भलाई करना होता है। अगर धर्म को राजनीति में मिलाया जाए, तो समाज में नफरत और झगड़े बढ़ सकते हैं, जिससे देश की एकता और शांति को नुकसान हो सकता है। धर्म और राजनीति का मेल तब तक ठीक है जब धर्म केवल नैतिक दिशा दिखाए, लेकिन अगर धर्म सत्ता पाने का ज़रिया बन जाए, तो यह लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक हो सकता है।
तनय शर्मा ( मीडिया विद्यार्थी)

मेरी व्यक्तिगत राय में धर्म और राजनीति का मेल सीमित और संतुलित होना चाहिए। धर्म व्यक्ति को नैतिकता और सत्य की दिशा में प्रेरित करता है, जबकि राजनीति समाज के संचालन और विकास का साधन है। यदि राजनीति में धार्मिक मूल्यों का उपयोग नैतिक दिशा देने के लिए किया जाए, तो वह समाज के लिए लाभकारी हो सकता है। लेकिन जब धर्म का इस्तेमाल वोट बैंक, भेदभाव या लोगों को बांटने के लिए किया जाता है, तो वह खतरनाक हो जाता है। राजनीति का उद्देश्य सभी नागरिकों की भलाई होना चाहिए, न कि किसी एक धर्म या समुदाय को प्राथमिकता देना। इसलिए मेरा मानना है कि धर्म और राजनीति को पूरी तरह अलग तो नहीं किया जा सकता, लेकिन धर्म का राजनीति में दुरुपयोग न हो, इसका विशेष ध्यान रखना ज़रूरी है। राजनीति में धर्म का स्थान मार्गदर्शक के रूप में होना चाहिए, न कि सत्ता की सीढ़ी के रूप में।
सृष्टि राय ( मीडिया विद्यार्थी)

राजनीति और धर्म का मेल सम्भव तो है परंतु सामाजिक दृष्टि से अनुचित है क्योंकि राजनीति का अपना धर्म होता है. यही नहीं बल्कि विभिन्न धर्म ग्रंथों का भी यही कहना है कि धर्म की राजनीति करना अनुचित एवं कुरीति है इसलिए धर्म की राजनीति नहीं बल्कि राजनीति का धर्म होना चाहिए. ये बहुत ही विडंबना की बात है कि जब से समाज में समाज को चलाने के लिए सता बनी उसी वक़्त से इतिहास हमे सिखाने की कोशिश कर रहा है कि धर्म या जाति की राजनीति कभी सामाजिक दृष्टि से अनुकूल नहीं हो सकता परंतु ये अक्सर कहा जाता है कि अगर इतिहास से कुछ सीख न पाए तो इतिहास के पन्नों में तुम सिमट कर रह जाओगे और इतिहास तो अपने आपको दुहराता ही है. जब भारत में महाजनपद शासन आया तो लोगों ने जाति की राजनीति की और परिणाम भयावह ही हुआ क्योंकि जब पहला शूद्र शासक नंद वंश आया तो दुसरी जातियों पर अत्याचार करने लगा जिनमे ब्राह्मण अग्रणी थे परन्तु दुश्मनी कहीं रुक नहीं सकती और मौर्य वंश के बाद शुंग वंश आया जिसने उस जाति की राजनीति को दोहराया. तात्पर्य ये है कि चाहें जाति या धर्म की राजनीति हो उसका परिणाम एक जगह नहीं रुकता है. भारत धर्म की राजनीति दिल्ली सल्तनत और मुगलों से शुरू हुआ जिसमे सभी ने धर्म की राजनीति नहीं की थी परंतु इतिहास के पन्नों में वो वहीं सिमट गए परंतु इसका परिणाम भी उतना ही भयावह हुआ जब पूरी दुनिया में ईसाइयों ने धर्म की राजनीति शुरू की और उसका अंत क्या हुआ एवं उसका विश्व में प्रभाव क्या पड़ा, ये हम सब जानते है. इसके अलावा कुछ पंथो द्वारा मौर्य वंश के नष्ट होने का कारण शस्त्र छोड़ना है परंतु अगर गौर से देखा जाए निष्कर्ष इससे बिल्कुल उल्टा है, अशोक का मौर्य साम्राज्य के नष्ट होने में बस इतना ही योगदान रहा कि उन्होंने धर्म की राजनीति शुरू की.
ओजस्वी मिश्रा ( समाजसेवी )

मेरी समझ में धर्म का अर्थ है सही रास्ता दिखाने वाला मार्ग। मगर राजनीति में जब धर्म का प्रयोग होता है तो ध्रुवीकरण करने के लिए होता है जो की बिल्कुल भी उचित नहीं है लेकिन लोकतंत्र में संख्या प्रबल है तो यह राजनीतिक गणित में ठीक बैठता है। अक्सर सभी राजनीतिक पार्टियां धर्म का प्रयोग कर सफलता पाती है लेकिन यह लोकतंत्र के मूल भावनाओं को आहत करता है I अतः यह राजनीति के अंकगणित को जरूर साध सकता है लेकिन राजनीतिक मूल्यों को कभी नहीं। अतः राजनीति में विभाजन के लिए धर्म का मेल बिल्कुल भी उचित नहीं है।
सप्तऋषि शाश्वत ( मीडिया विद्यार्थी)

मेरे मुताबिक धर्म और राजनीति का कोई मेल ही नहीं है क्योंकि धर्म और राजनीति दो अलग-अलग विषय वस्तु है, यदि हम धर्म के बारे में बात करें तो यह पर्सनल चॉइस है, इसका हम प्रचार प्रसार नहीं करते बल्कि हम व्यक्तिगत तौर पर हम इसे अपने जीवन में उतारते है लेकिन राजनीति एक पब्लिक ओपिनियन है ।
धर्म अपनी जगह पर होना चाहिए और राजनीति अपनी जगह पर, यदि इन दोनों का मिलाप नकारात्मक तरीके से होने लगा तो यह समाज पर अपनी गलत छाप छोड़ सकता है।धर्म के आधार पर राजनीति करने से भला सिर्फ राजनेताओं का होता है आम जनता का नहीं अतः धर्म और राजनीति का मेल उचित नहीं है।
देवेंद्र कुमार मीणा (लेखक )

धर्म और राजनीति का मेल भारत में एक संवेदनशील और बहुस्तरीय विषय है। जहां धर्म लोगों की नैतिकता और सांस्कृतिक पहचान का आधार है, वहीं राजनीति का उद्देश्य शासन और विकास होना चाहिए। आज डिजिटल दौर में दोनों का मिश्रण सामाजिक तनाव बढ़ा रहा है। ऐसे में जरूरी है कि धर्म को निजी आस्था तक सीमित रखा जाए और राजनीति को जनसेवा का माध्यम बनाया जाए। शिक्षा और जागरूकता लोगों को इस अंतर को समझने में मदद कर सकती है। संतुलन तभी संभव है जब नागरिक और नेता दोनों जिम्मेदारी से व्यवहार करें और विविधता को स्वीकारें I
उत्कर्ष मिश्रा (मुख्यमंत्री पुरस्कार प्राप्तकर्ता,सचिव नमस्कार फाउंडेशन)

धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है और राजनीति हो या सेवानिति हो या कोई भी क्षेत्र में बिना कर्तव्यपरायणता के अपने संकल्प के मूल ध्येय को चरितार्थ नहीं कर सकते।
इसलिए राजनीति में बिना धर्म के राजनीति सही दिशा से चल नहीं पाएगी क्योंकि राजनीति में धर्म का समन्वय लेकर ही राजा रामचंद्र , कृष्ण जी ने या तमाम जो हमारे नेता हुए चाहे वह शिवाजी हुए महाराणा प्रताप हुए या जितने भी हमारे जो वीर शहीद हुए, जिन्होंने देश के लिए कुछ किया है वह निश्चित रूप से उन्होंने राजनीति में धर्म का समावेश किया है |
मूल शब्दों में अगर कहा जाए तो बिना धर्म के राजनीति उचित ढंग से नहीं की जा सकती इसलिए धर्म और राजनीति का समन्वय आवश्यक है।
विश्वजीत कुमार ( मीडिया विद्यार्थी)

धर्म और राजनीति का मेल तभी तक उचित है जब वह नैतिकता और जनसेवा के सिद्धांतों पर आधारित हो। भारतीय संविधान ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है, लेकिन व्यवहार में धर्म और राजनीति का घनिष्ठ संबंध रहा है। इतिहास से लेकर आज तक, धर्म का राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग होता रहा है ।कभी सामाजिक सुधार के नाम पर, तो कभी वोट बैंक के लिए। जब धर्म को राजनीति का उपकरण बनाया जाता है, तब समाज में विभाजन, हिंसा और अस्थिरता जन्म लेती है। इसलिए ज़रूरी है कि धर्म की भूमिका को व्यक्तिगत आस्था और नैतिक मूल्यों तक सीमित रखते हुए राजनीति को पारदर्शिता और संवैधानिक मूल्यों से संचालित किया जाए।
धर्म-राजनीति का संतुलन—समझदारी की ज़रूरत
धर्म और राजनीति, दोनों का समाज पर गहरा असर है। लेकिन जब एक का इस्तेमाल दूसरे के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया जाए, तो सवाल उठना लाज़मी है। हमारे बातचीत में सामने आया कि जनता अब केवल नारों या धार्मिक प्रतीकों से प्रभावित नहीं होती, वह विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे ठोस मुद्दों को भी उतनी ही गंभीरता से देखती है।
इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल धर्म की आड़ में लोगों की भावनाओं का शोषण करने के बजाय, धर्म को निजी आस्था तक सीमित रखें और राजनीति को जनसेवा का ज़रिया बनाएं। तभी एक समावेशी और सशक्त लोकतंत्र की नींव मजबूत हो सकेगी।
First of all, let me clarify that when I talk about Dharma, I do not mean religion. There is a big difference between the two. Religion is mostly about sects like Islam, Christianity, etc. while Dharma is a much deeper and broader concept. So, in my opinion, the mix of Dharma not religion and politics can be right, if it’s based on the correct understanding. Dharma is not about rituals, places of worship, or belonging to any particular community. It’s about universal values, truth, patience, forgiveness, self-discipline, wisdom, compassion. These values are what shape a good human being, and in a larger sense, a good society. If politics is guided by these Dharmic values, it becomes ethical, honest, and people-centered. Leaders with a Dharmic mindset are more likely to work for justice, unity, and real progress. I also believe that when political leaders raise civilizational issues like protecting our heritage, preserving cultural identity, or reviving timeless values, it’s not only valid, but necessary. A society that forgets its roots loses its strength and direction. But at the same time, we must be careful not to label every such effort as a “political agenda.” Not everything related to our civilization is politics, Some things are about identity, pride, and continuity. So yes, Dharma and politics can go together but only when we truly understand Dharma, not confuse it with religion. And when civilizational concerns are raised, they should be seen as matters of national importance, not political stunts. Only then can politics truly reflect the spirit and soul of the nation.