
भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती सिर्फ सरकार से नहीं, बल्कि एक मज़बूत विपक्ष से भी तय होती है। जब भी सत्ता बेलगाम हो, तो उसे टोकने वाला कोई तो होना चाहिए। लेकिन आज जब संसद की बहसें टीवी स्क्रीन पर सजीव दिखाई देती हैं और सोशल मीडिया पर ट्रेंड तय करते हैं, तो एक सवाल मन में उठता है — क्या आज का भारतीय विपक्ष अपनी असली ज़िम्मेदारी निभा पा रहा है?
इस सवाल का जवाब सीधा नहीं है, लेकिन ज़रूरी ज़रूर है।
! विपक्ष का मतलब सिर्फ ‘ना’ कहना नहीं होता !
बहुत से लोग विपक्ष को सिर्फ एक विरोधी ताकत मानते हैं। पर हकीकत में उसकी भूमिका कहीं ज़्यादा गहरी है। उसे न सिर्फ सवाल पूछने चाहिए, बल्कि समाधान भी बताने चाहिए। उसे नीतियों का विरोध करना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी बताना चाहिए कि वो क्या करता अगर वो सत्ता में होता।
आज के दौर में यह देखने को बहुत कम मिलता है।
! एकजुटता की कमी या नेतृत्व का संकट? !
कई बार ऐसा लगता है जैसे विपक्ष खुद तय नहीं कर पा रहा कि उसकी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए। देश में बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की चिंता, शिक्षा का गिरता स्तर — ये सब मुद्दे हैं। लेकिन इनके बीच विपक्ष की आवाज़ बंटी-बंटी सी लगती है।
आज भी कोई ऐसा नेता नहीं है जिसे पूरे विपक्ष का भरोसा मिला हो। एक तरफ नरेंद्र मोदी जैसा मज़बूत चेहरा है, तो दूसरी तरफ विपक्ष छोटे-छोटे गुटों में बंटा हुआ दिखता है — ममता बनर्जी, केजरीवाल, राहुल गांधी, अखिलेश यादव — सबके अपने-अपने किले हैं, लेकिन साझा युद्ध नहीं।
! जनता के साथ संवाद की दरार !
भारत की राजनीति में जनता से जुड़ाव बहुत मायने रखता है। अगर आप मुद्दे भी उठाएं लेकिन वो लोगों तक न पहुंचे, तो असर नहीं होता। यही दिक्कत विपक्ष के साथ हो रही है।
महंगाई, पेपर लीक, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों पर वे सवाल जरूर उठाते हैं, लेकिन ज़्यादातर बार यह सोशल मीडिया की ‘ट्रेंड वार’ तक सिमट कर रह जाता है। जमीनी स्तर पर आंदोलन, जनसंवाद या लोगों को लामबंद करना — ये सब अब पहले जैसा नहीं रहा।
! मीडिया की भूमिका भी सवालों के घेरे में !
यह बात अब किसी से छुपी नहीं कि टीवी चैनलों की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। स्टूडियो में विपक्ष की बात को या तो हंसी में उड़ा दिया जाता है या ‘एजेंडा’ कहकर किनारे कर दिया जाता है। बहुत से नेता सोशल मीडिया पर ज़रूर सक्रिय हैं, लेकिन उनकी पहुंच मुख्यधारा की तुलना में कम है।
जब मीडिया ही सत्ता का मुखपत्र बन जाए, तो विपक्ष की आवाज़ कमजोर पड़ जाती है — और यही आज हो रहा है।
! जब विपक्ष ने दिखाई थी ताकत !
हालांकि यह कहना गलत होगा कि विपक्ष पूरी तरह नाकाम रहा है। कई बार उसने बेहद दमदार भूमिका निभाई है। संसद में महिला आरक्षण पर बहस हो, या फिर कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन — विपक्ष ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ हो या ममता बनर्जी के तीखे तेवर — कहीं न कहीं जनता को महसूस होता है कि सत्ता को जवाब देने वाला कोई है। लेकिन यह असर टिकाऊ नहीं बन पाता।
! क्या विपक्ष पेश कर पा रहा है एक विकल्प? !
असल चुनौती सिर्फ आलोचना की नहीं है — बल्कि एक सशक्त विकल्प पेश करने की है। अगर आप केवल ‘ये गलत है’ कहते हैं, लेकिन ‘क्या सही है’ नहीं बताते, तो जनता का भरोसा जीतना मुश्किल हो जाता है।
और यही वह खाली जगह है जिसे विपक्ष अब तक नहीं भर पाया है। गठबंधन बनते हैं, बिगड़ते हैं, लेकिन ‘विकल्प की राजनीति’ अभी भी इंतज़ार कर रही है।
! निष्कर्ष: ज़िम्मेदारी अधूरी, लेकिन उम्मीद अभी बाकी है. !
तो क्या भारत में विपक्ष अपनी भूमिका निभा रहा है?
साफ़ तौर पर कहें तो — जितनी ज़रूरत है, उतना नहीं।
जितना कर रहा है, वो भी काफी नहीं।
लेकिन लोकतंत्र उम्मीद पर टिका होता है। और जनता जानती है कि सत्ता को जवाबदेह बनाए रखने के लिए विपक्ष का मज़बूत होना ज़रूरी है।
अब विपक्ष के पास विकल्प है — या तो वो केवल चुनावी विरोध बनकर रह जाए, या फिर वाकई एक नैतिक, जनहित वाली ताकत के रूप में उभरे।
सवाल बड़ा है — क्या विपक्ष अपनी भूमिका खुद तय करेगा या सत्ता तय करेगी कि विपक्ष कैसे दिखे?
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