जिसे दुनिया लोकतंत्र और मानवाधिकारों का सबसे बड़ा संरक्षक मानती है, वह देश – अमेरिका – असल में अक्सर अपने निजी हितों के लिए ही सक्रिय रहा है। चाहे बात युद्ध की हो, किसी देश में विद्रोह भड़काने की या फिर वैश्विक संसाधनों पर नियंत्रण की, अमेरिका ने हर अवसर को अपनी ताकत बढ़ाने का जरिया बनाया।
पनामा-अमेरिका: एक नहर, कई साज़िशें
पनामा कभी कोलंबिया का हिस्सा था। अमेरिका की नजर इस पर इसलिए थी क्योंकि यह अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को जोड़ने के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अहम था।
जब कोलंबिया ने अमेरिका को वहां नहर बनाने की अनुमति नहीं दी, तो अमेरिका ने पनामा में विद्रोह भड़काया। 3 नवंबर 1903 को पनामा को स्वतंत्रता मिली — लेकिन यह स्वतंत्रता अमेरिका की साज़िश और रणनीति से उपजी थी, न कि स्वदेशी आंदोलन से।
1904 में अमेरिका ने पनामा नहर का निर्माण शुरू किया। लगभग 10 साल में, और हज़ारों मज़दूरों की मौत के बाद, 1914 में नहर बनकर तैयार हुई।
1964 में पनामा ने अपने झंडे को वहां फहराने की कोशिश की, तो अमेरिका ने इसे बलपूर्वक रोक दिया।
हालात बिगड़ने के बाद 1977 में टोरेहोज-कार्टर संधि हुई, जिसमें तय हुआ कि 1999 तक नहर पनामा को सौंप दी जाएगी। लेकिन आज, 2 अप्रैल 2025 को, डोनाल्ड ट्रंप के बयान ने फिर विवाद खड़ा कर दिया है – “अमेरिका फिर से पनामा पर नियंत्रण चाहता है।”
वियतनाम युद्ध: साम्यवाद के खिलाफ या वर्चस्व की लड़ाई?

वियतनाम कभी फ्रांसीसी उपनिवेश था। WWII के बाद जापान पीछे हटा और फ्रांस को भी वियतनाम से जाना पड़ा। लेकिन उसके बाद शुरू हुआ अमेरिका का असली खेल।
उत्तर वियतनाम साम्यवादी था – चीन और USSR का समर्थन प्राप्त। दक्षिण वियतनाम को अमेरिका ने पूंजीवाद के नाम पर समर्थन दिया और 1960 के दशक में सीधा हस्तक्षेप किया।
•अमेरिका ने वियतनाम पर 8,64,000 टन बम गिराए — WWII से भी ज्यादा!
•30 लाख आम नागरिक मारे गए।
•वियतनाम को “बचाने” की आड़ में अमेरिका ने उसे कब्रिस्तान बना दिया।
अफगानिस्तान: पहले दोस्त, फिर दुश्मन
1979 में सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान में घुसीं। अमेरिका ने “मुजाहिदीन” को हथियार, पैसा और ट्रेनिंग देना शुरू किया — जिनमें से एक था ओसामा बिन लादेन।
1990 के दशक में इन्हीं लड़ाकों को अमेरिका ने “फ्रीडम फाइटर” कहा।
2001 में 9/11 हमले के बाद वही ओसामा दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी बन गया — और अमेरिका की सेना फिर अफगानिस्तान पहुंच गई।
यह युद्ध बताता है: अमेरिका के लिए न कोई स्थायी मित्र होता है, न दुश्मन — सिर्फ अवसर।
भारत-अमेरिका: दोस्ती में भी राजनीति
भारत और अमेरिका के संबंधों में कभी पूर्ण विश्वास नहीं रहा।
1971 भारत-पाक युद्ध के समय, अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया। इंदिरा गांधी को अपमानित किया गया, और सातवां बेड़ा भारत के खिलाफ भेजा गया।
1998 में अटल जी के नेतृत्व में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर 13 प्रतिबंध लगाए।
कारगिल युद्ध के दौरान भारत ने अमेरिका से सैटेलाइट इमेज मांगी, पर अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ देते हुए मना कर दिया।
यूक्रेन युद्ध: पर्दे के पीछे अमेरिका
1991 में सोवियत संघ से अलग होने के बाद से अमेरिका यूक्रेन के भीतर धीरे-धीरे घुसपैठ करता रहा — आर्थिक सहायता, सैन्य उपकरण और कूटनीतिक हस्तक्षेप।
2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ा।
तब से अमेरिका ने:
100 अरब डॉलर की सहायता दी,हथियार भेजे,और खुफिया जानकारी साझा की।
लेकिन शांति आज तक नहीं आई। लाखों लोगों की जान जा चुकी है।
यह युद्ध रूस और यूक्रेन के बीच नहीं, अमेरिका की छाया में लड़ा जा रहा है।
कोरियन प्रायद्वीप: एक और विभाजन
WWII के बाद कोरिया को 38वें समानांतर पर बांट दिया गया —
•उत्तर कोरिया (साम्यवादी)
•दक्षिण कोरिया (पूंजीवादी)
1950 में कोरियन युद्ध छिड़ा और अमेरिका ने सबसे अधिक बम गिराए — कोरिया का विभाजन स्थायी हो गया।
अमेरिका अब खुले तौर पर ग्रीनलैंड पर “कब्ज़ा” करने की बात कर रहा है।
अमेरिका की नीति — पहले मदद, फिर कब्जा
कभी मानवता, कभी लोकतंत्र, तो कभी आतंकवाद के नाम पर हस्तक्षेप करने वाला अमेरिका असल में एक विश्व स्तर का रणनीतिक व्यापारी है।
वह न किसी का स्थायी दोस्त है, न दुश्मन।
जिसके पास संसाधन हैं, रणनीतिक स्थिति है या राजनीतिक लाभ की संभावना है — वहां अमेरिका जरूर पहुंचता है।
असली सवाल यह है —क्या यह विश्व नेतृत्व है या वैश्विक चालबाज़ी?
Report by Yuvraj Chandra
