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“हर रोज़ जान हथेली पर रखकर पार करते हैं नदी” — पुल निर्माण की मांग पर फूटा ग्रामीणों का गुस्सा

बिहार के भागलपुर जिले के नाथनगर विधानसभा अंतर्गत यादव टोला में शनिवार को कुछ अलग ही दृश्य देखने को मिला। यहां के ग्रामीणों ने तहसूर और रूपौली गांव के बीच बहने वाली नदी पर पुल निर्माण की पुरानी मांग को लेकर ज़बरदस्त प्रदर्शन किया। ग्रामीणों की यह आवाज़ न सिर्फ़ सरकार तक पहुंचाने की कोशिश थी, बल्कि वर्षों की उपेक्षा और अनदेखी के खिलाफ़ एक खुला जनसंघर्ष भी बन चुका है।

इस आंदोलन में सैकड़ों की संख्या में स्थानीय लोग, जनप्रतिनिधि और मुखिया एकजुट नज़र आए। हाथों में तख्तियां, नारों की गूंज और आंखों में बदलाव की ललक — सबकुछ यह बता रहा था कि अब इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना प्रशासन के लिए आसान नहीं होगा।

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में “संघर्ष” बना नदी पार करना

यह नदी, जो तहसूर और रूपौली गांव के बीच बहती है, ग्रामीणों के लिए रोज़मर्रा की चुनौती बन चुकी है। बिना पुल के, लोगों को बाइक, साइकिल या पैदल ही नदी पार करनी पड़ती है। सामान्य दिनों में भी जोखिम रहता है, लेकिन मानसून में जब नदी उफान पर होती है, तब यह रास्ता जानलेवा हो जाता है।

स्थानीय निवासी रमेश यादव ने कहा, “हमारे बच्चे स्कूल जाते हैं इसी रास्ते से, महिलाएं अस्पताल और हाट-बाज़ार के लिए इसी नदी को पार करती हैं। कई बार हादसे होते हैं, लेकिन कोई देखने वाला नहीं।”

समाजसेवी आशीष मंडल का साथ, ग्रामीणों को मिला संबल

प्रदर्शन में क्षेत्रीय समाजसेवी आशीष मंडल भी मौजूद रहे, जिन्होंने सरकार और प्रशासन के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की। उन्होंने कहा, “यह केवल पुल नहीं, बल्कि लोगों की जिंदगी से जुड़ा सवाल है। जब तक सरकार सुनवाई नहीं करती, हम चुप नहीं बैठेंगे।”

आशीष मंडल का यह स्पष्ट संदेश था कि यदि ग्रामीणों की उपेक्षा यूं ही होती रही, तो यह आंदोलन और व्यापक रूप ले सकता है।

राजनीतिक उपेक्षा या प्रशासनिक लापरवाही?

यह कोई नई मांग नहीं है। ग्रामीण कई वर्षों से पुल के लिए गुहार लगा रहे हैं। ज्ञापन, जनसुनवाई, पंचायत प्रतिनिधियों की ओर से सिफारिशें — सबकुछ हो चुका है। बावजूद इसके, अभी तक किसी भी स्तर पर निर्माण कार्य की शुरुआत नहीं हुई है।

एक स्थानीय जनप्रतिनिधि ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “कई बार फाइल आगे बढ़ी, लेकिन जमीन अधिग्रहण या बजट जैसे कारणों से मामला अटका रह गया।”

हालांकि ग्रामीण अब इन बहानों को मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर सड़कों और पुलों के उद्घाटन के लिए नेता चुनावी मौसम में आते हैं, तो निर्माण कार्य में देरी क्यों?

“विकास” के नारों में दब गई गांव की ज़मीन हकीकत

बिहार सरकार द्वारा लगातार ग्रामीण विकास और बुनियादी सुविधाओं की बातें की जाती हैं। मुख्यमंत्री सात निश्चय योजना से लेकर ग्रामीण सड़कों और पुलों के निर्माण का जिक्र चुनावी मंचों पर खूब होता है, मगर जमीनी हकीकत यादव टोला जैसे गांवों में पूरी तरह अलग है।

यहां विकास की गाड़ी अधूरी पुलिया पर आकर रुक जाती है।

पुल नहीं सिर्फ लोहे और सीमेंट की बात नहीं, यह भरोसे और अधिकार की बात है

रूपौली और तहसूर और इसके आसपास के गांवों की यह लड़ाई बताती है कि भारत के कई हिस्सों में बुनियादी ढांचे की कमी अब एक ‘इमरजेंसी’ का रूप ले रही है। यह केवल एक पुल की मांग नहीं है, यह उस इंसानी हक़ की मांग है, जिसमें सुरक्षित यात्रा, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक जीवन शामिल है।

अब देखना होगा कि सरकार कब जागती है — आवाज़ सुनने से पहले या हालात बिगड़ने के बाद।

Report by Ayush Singh

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