यह उसी बिहार की तस्वीर है जहाँ गाँधी सेतु जैसा सबसे लंबा पुल है। हाँ, बात उसी बिहार की मैं लिख रहा हूँ, जहाँ आए दिन ख़बरों में देखने को मिलता है कि कोई पुल टूट गया। लेकिन आज मैं जिस जगह गया, वहाँ न तो
कोई पुल टूटा था और न ही कोई नया पुल बन रहा था।
जो आप देख पा रहें है यह तस्वीर अररिया की है, जहाँ साफ़ दिख रहा है कि बाँस को रस्सी से बाँधकर एक पुलिया का निर्माण ग्रामीणों द्वारा किया गया है। जहाँ लोग इस पार से उस पार पैदल अपनी जान को जोखिम में डालकर आ-जा रहे हैं।
खैर, अभी बिहार विधानसभा चुनाव सर पर हैं, तो नेताओं का दौरा भी अपनी चरम सीमा पर है, साथ ही उनके P.R. (पब्लिक रिलेशन) वाले सुदूर ग्रामीण इलाक़ों में घूम ही रहे हैं। तो सवाल इतना ही है कि चुनाव के वक़्त अररिया का यह पुलिया क्या नेताओं के घोषणापत्र (manifesto) का हिस्सा होगा या फिर अगले पाँच साल लोग ऐसे ही एक पुलनुमा बाँस के सहारे अपनी जान को हथेली में रख इस नहर को पार करेंगे ?
और सबसे बड़ा सवाल यह है कि कब तक बिहार में नए-नए अस्थाई पुलों का निर्माण होगा और ख़बरों में वह पुल गिरते रहेंगे?
Report by Shreyansh Kumar
