प्राइड मंथ (Pride month) यानी अपनी आइडेंटिटी को सेलिब्रेट करने का महीना।
प्राइड मंथ 1 जून से शुरू होकर 30 जून तक चलता है , और यह LGBTQ समुदाय के लिए बहुत ही मायने रखता है ।
अब जब जून खत्म हो रहा है तो आज हम इसके बारे में चर्चा करेंगे।
अफसोस की बात ये है कि हमारे देश में कई लोग ‘गे’, ‘हिजड़ा’, ‘लेस्बियन’ जैसे शब्दों को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। किसी की पहचान, किसी के जज़्बात, किसी के अस्तित्व को गाली बनाकर पेश किया जाता है, लेकिन किसी का अस्तित्व कोई गाली नहीं होता।

प्राइड मंथ है क्या?

हर साल जून में पूरी दुनिया प्राइड मंथ मनाती है — ये कोई पार्टी या रंग-बिरंगा शो नहीं, ये पहचान का जश्न है, उन लोगों का जश्न जो समाज की ‘नॉर्मल’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठते। LGBTQIA+ कम्युनिटी — यानी लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, इंटरसेक्स और एसेक्शुअल — ये सब वो लोग हैं, जो अपने तरीके से जीते हैं, प्यार करते हैं, और दुनिया के सामने खुद को छुपाते नहीं।
LGBTQIA+ मतलब क्या?

आसान भाषा में हम इसको ऐसे समझ सकते हैं
लेस्बियन: लड़की को लड़की से प्यार होता है
गे: लड़का को लड़के से
बाइसेक्शुअल: दोनों से हो सकता है
ट्रांसजेंडर: जिनका जेंडर उनकी बॉडी से मेल नहीं खाता
क्वीयर: जो किसी लेबल में फिट नहीं बैठते
इंटरसेक्स: जन्म से ही जिनमें मेल-फीमेल दोनों की बॉडी कैरेक्टरिस्टिक हो
एसेक्शुअल: जिन्हें यौन आकर्षण महसूस नहीं होता
ये सब इंसान हैं, और ये सब नॉर्मल हैं। हां, अलग ज़रूर हैं — पर ग़लत नहीं।
कुछ लोगों की धारणा यह है कि LGBTQ+ समुदाय नेचर के अगेंस्ट है, यानी की प्रकृति के खिलाफ है !
“प्रकृति के खिलाफ? ज़रा सोच बदल के देखो…”
किस किताब में लिखा है कि प्यार और पहचान का एक ही तरीका होता है?यह बड़ी ही बेतुकी सी बात है, जो अक्सर सुनने को मिलती है ।
जिनकी प्रकृति ही गे है, जो लड़का लड़कों की तरफ खिंचाव महसूस करता है, या लड़की लड़कियों की तरफ — वही तो उसकी प्रकृति है।अब आप किसी की असली प्रकृति को “प्रकृति के खिलाफ” कैसे कह सकते हो?
जैसे कोई बाएं हाथ से लिखता है — आप उसको दाएं हाथ से लिखने पर मजबूर करोगे तो क्या वो प्राकृतिक होगा? नहीं न? वैसे ही, किसी को अपनी सेक्सुअलिटी या जेंडर आइडेंटिटी बदलने को कहना कुदरत से लड़ने जैसा है।
सच तो ये है — LGBTQ+ कम्युनिटी प्रकृति के खिलाफ नहीं, बल्कि उसी की एक अनोखा हिस्सा हैं। प्रकृति ने ही उन्हें ऐसा बनाया है
गे, लेस्बियन, ट्रांस — ये सब कोई “Western culture” की बीमारी नहीं है।ये हजारों साल से इस धरती पर हैं — इंडिया की इतिहास, कलाएं और धर्मों में भी। महाभारत में शिखंडी ने भी पितामह भीष्म को मारने के लिए एक दिन के लिए अपनी आइडेंटिटी बदली थी । अर्जुन को भी श्राप के कारण अज्ञातवास में स्त्री के वेशभूषा में रहना पड़ा था। और भी ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं।
प्यार, जेंडर और पहचान — ये सब एक स्पेक्ट्रम हैं। सबको एक जैसे साँचे में ढालने की कोशिश करना कुदरत के काम में टांग अड़ाना है। और ये काम इंसान को कभी शोभा नहीं देता।
‘गे’ एक गाली नहीं है।जिस तरह कोई ‘हिंदू’, ‘मुसलमान’, ‘ब्राह्मण’, ‘दलित’ बोलने से गाली नहीं हो जाता, उसी तरह ‘गे’ बोलना भी गाली नहीं है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब तुम इसे ताने की तरह इस्तेमाल करते हो — “क्या गे जैसा बिहेव कर रहा है”, “हिजड़े जैसे कपड़े मत पहन” — ये सब ताने नहीं, मानसिक बीमारियां हैं।
समाज बदल रहा है। अब वो ज़माना नहीं रहा जब लोग डर-डर के जिया करते थे। अब लोग खुल कर बोलते हैं, लड़ते हैं, और हक़ मांगते हैं। लेकिन जब तक हम, यानी आम लोग, अपने दिमाग के पुराने खांचे नहीं तोड़ेंगे — तब तक बदलाव अधूरा रहेगा।
प्राइड मंथ क्यों ज़रूरी है, और लोगों को इसके बारे में जानकारी होना क्यों होना चाहिए, खासकर युवाओं को?

क्योंकि अभी भी हमारे देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो डर के साए में जीते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपनी सच्चाई बता दी, तो परिवार छोड़ देगा, दोस्त हंसेंगे, समाज ठुकरा देगा।
प्राइड मंथ उन्हें याद दिलाता है — कि वो अकेले नहीं हैं। दुनिया में उनकी तरफ बहुत से ऐसे लोग हैं जो उन्हें की तरह अलग और अनोखे हैं पर वह गलत नहीं है। वह भी हमारे जैसे ही आम इंसान हैं, हमारे जैसे ही उठना, बैठना, खाना, पीना और रहना उनका भी है। बस उनकी पसंद अलग है पर गलत नहीं।
जैसे प्रकृति ने बहुत सारे तरीके के फूल बने हैं,लेकिन हर फूल का गुलाब होना जरूरी नहीं है ठीक उसी तरह।
आख़िर में…प्यार जो भी हो, जैसा भी हो — सच्चा हो तो उसे जगह मिलनी चाहिए। गाली बनाना बंद करें।
लोगों को अपनी सोच बदलने की जरूरत है और ऐसे लोगों के मदद के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों के अंदर एक डर का माहौल पहले से ही रहता है।और वह ऑलरेडी डर के साए में जी रहे होते। ऐसे में कई लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं, कई लोग सुसाइड का रास्ता अपनाते हैं और इन सब का जिम्मेदार बस हमारा समाज है, जो कि अपने के बजाय उन्हें डरता है।
इन सब में हमारा फर्ज बनता है कि हम ऐसे लोगों के लिए आगे आए और उनकी मदद करें ना कि उन्हें ऑनलाइन छोड़ उन पर मेंस बनाएं और उन्हें और परेशान करें।
Report by Amisha Sharma ( Media student )
